
“मुझे लगता है कि मैंने अभिनय तो रुई बेचते-बेचते ही सीख लिया, क्योंकि कुछ भी बेचने के लिए आपको कहीं न कहीं एक्टिंग करनी ही पड़ती है।”
“कुछ बेचने के लिए भी आपको एक्टिंग करनी पड़ती है,” यह कहना है अभिनेता अशोक पाठक का, जिन्हें आज लोग वेब सीरीज़ पंचायत के लोकप्रिय किरदार ‘बिनोद’ के रूप में जानते हैं।
पंचायत का चौथा सीज़न रिलीज़ हो चुका है और पांचवें की आधिकारिक घोषणा भी हो गई है। ऐसे में ‘बिनोद’ एक बार फिर सोशल मीडिया पर चर्चा का केंद्र बना हुआ है।
लेकिन इस किरदार से मिली पहचान अशोक पाठक के लिए अचानक नहीं आई। इसके पीछे उनकी लंबी, कठिन और संघर्षों से भरी यात्रा छिपी है।
‘बिनोद और मेरे बीच कई बातें एक जैसी हैं।’

अशोक पाठक के माता-पिता बिहार के सिवान से हरियाणा आकर वहां बस गए थे।
अशोक पाठक कहते हैं, “मेरे और बिनोद के जीवन में काफी समानताएं हैं। मैं मानता हूं कि ज़िंदगी को सरल होना चाहिए, ज़रूरत से ज़्यादा जटिल नहीं। मैं हमेशा उस सरलता को बनाए रखने की कोशिश करता हूं, और बिनोद का स्वभाव भी कुछ ऐसा ही है — सीधा, सरल और स्पष्ट बात करने वाला।”
बिहार के सिवान ज़िले से ताल्लुक रखने वाले अशोक पाठक के माता-पिता बेहतर जीवन की तलाश में हरियाणा के फरीदाबाद आकर बसे थे। उनके पिता ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, इसलिए शुरुआत में उन्हें काम ढूंढ़ने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उन्होंने हेल्पर और फायरमैन जैसी नौकरियां कीं, लेकिन उनके मन में एक ख्वाहिश हमेशा रही — कि उनके बच्चे पढ़-लिखकर कुछ बनें।
हालांकि अशोक पाठक का मन कभी पढ़ाई में नहीं लगा। उन्हें स्कूल का सिलेबस बेहद उबाऊ लगता था।
वे बताते हैं कि घर में सबसे बड़ा होने की वजह से उन पर उम्मीदों का बोझ कुछ ज़्यादा ही था, और उन्हें इसका एहसास भी था। लेकिन जब दिल ही पढ़ाई में न लगे तो क्या किया जाए।
एक समय ऐसा भी आया जब उनके छोटे भाई की तबीयत खराब रहने लगी, तब उन्होंने घर की आर्थिक स्थिति में मदद करने का फैसला किया। उन्होंने पैसे कमाने की ठानी और एक रिश्तेदार के साथ रुई बेचने का काम शुरू कर दिया।
अशोक का मानना है कि यहीं से उन्होंने अभिनय के शुरुआती पाठ सीखे।
वे बताते हैं, “जब रुई बेचनी होती थी तो लोगों को मनाने के लिए अलग-अलग तरह की एक्टिंग करनी पड़ती थी। कई बार लोग मेरी हालत देखकर दया में आकर ही खरीद लेते थे।”
बीबीसी हिंदी से बातचीत में अशोक पाठक हंसते हुए कहते हैं, “बहुत से मां-बाप अपने बच्चों को सलाह देते हैं — ‘उसकी संगत में मत पड़ना, वरना बर्बाद हो जाओगे।’ मैं वही बच्चा था जिससे बाकी माता-पिता अपने बच्चों को दूर रखना चाहते थे। ये बात मेरे पिताजी को बहुत दुख देती थी।”
“लेकिन मेरे भीतर जो भावनाएं थीं, उन्होंने मुझे संभाले रखा। मैं पिताजी की मेहनत को महसूस करता था, परिवार की हालत को समझता था। इसलिए मैं रुई बेचने का काम करता रहा।”
रुई बेचने में मेहनत तो लगती थी, लेकिन इसी काम से जो थोड़े पैसे मिलते थे, उन्होंने अशोक के लिए एक नया रास्ता खोला — और वो रास्ता था सिनेमा का।
उन्हीं पैसों से उन्होंने सिनेमाघरों में जाकर फिल्में देखनी शुरू कीं। इस चक्कर में उन्हें कई बार अपने पिता की डांट और मार भी झेलनी पड़ी, लेकिन फिल्मों का शौक कभी छूटा नहीं।

अशोक पाठक बताते हैं कि किसी तरह उन्होंने 12वीं की पढ़ाई तो पूरी कर ली, लेकिन आगे क्या करना है, यह समझ नहीं आ रहा था। पढ़ाई में दिल नहीं लगता था, लेकिन दोस्तों के समझाने-बुझाने पर उन्होंने ग्रैजुएशन में दाख़िला ले लिया।
वे मानते हैं कि यह निर्णय उनके जीवन का सबसे अहम मोड़ साबित हुआ। कॉलेज में एक नाटक की तैयारी के दौरान उन्होंने साहित्यिक किताबें पढ़नी शुरू कीं। उन दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं, “मुझे लगा कि असली पढ़ाई तो यही है। मैं घंटों लाइब्रेरी में बैठा रहता था।”
नाटक के अनुभव ने उनके भीतर अभिनय के प्रति गहरी रुचि जगा दी। वे कहते हैं, “उस नाटक के बाद मेरे मन में ये साफ़ हो गया कि मुझे एक्टिंग ही करनी है। लेकिन मैं सीधे मुंबई जाकर किस्मत आज़माना नहीं चाहता था, बल्कि खुद को पहले इसके लिए तैयार करना चाहता था।”
अशोक का सपना था दिल्ली के प्रतिष्ठित नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD) में दाख़िला लेना, लेकिन यह सपना उनके लिए अधूरा रह गया। वे बताते हैं कि उन्होंने दो बार प्रयास किया, मगर चयन नहीं हो पाया। धीरे-धीरे उन्हें लगने लगा कि शायद एक्टिंग का सपना अधूरा ही रह जाएगा।
हताश होकर उन्होंने दोबारा नौकरी करना शुरू कर दिया, लेकिन मन तो अब भी सिनेमा और मंच से जुड़ा हुआ था।
अशोक कहते हैं, “परिवार ने हमेशा मुझे हौसला दिया, लेकिन आसपास के कई लोग कहने लगे, ‘तुम्हारी शक्ल-सूरत हीरो जैसी नहीं है, तुम्हें कौन काम देगा?’ लेकिन सपना तो सपना होता है, वह किसी शक्ल का मोहताज नहीं होता।”
आख़िरकार उन्होंने एक और कोशिश की और लखनऊ के भारतेंदु नाट्य अकादमी में दाख़िला लिया। वहां से अभिनय की विधिवत पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने मुंबई — सपनों की मायानगरी — की ओर रुख़ किया।
’12 साल तो बिनोद तक पहुंचने में ही लग गए’
जब अशोक पाठक से उनके मुंबई के शुरुआती दिनों के अनुभव के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने हॉलीवुड फिल्म द शॉशैंक रिडेम्पशन का एक मशहूर डायलॉग सुनाया— “Hope is a good thing, maybe the best of things, and no good thing ever dies.”
वे कहते हैं, “उम्मीद पर ही दुनिया टिकी है। मुंबई में शुरुआती दिन अच्छे थे, लेकिन फिर एक ऐसा वक्त भी आया जब कुछ भी आगे बढ़ता हुआ महसूस नहीं हो रहा था।”
अशोक बताते हैं, “मुझे ज़्यादातर ड्राइवर, ढाबे वाले या गार्ड जैसे किरदार ही मिल रहे थे। इन रोल्स से मैं ऊब चुका था, लेकिन पंजाबी सिनेमा में लगातार काम करता रहा और उसी से मेरी रोज़ी-रोटी चलती रही।”
बिट्टू बॉस, शंघाई, शूद्र: द राइजिंग, द सेकेंड बेस्ट एग्जोटिक मैरीगोल्ड होटल, और फ़ोटोग्राफ़ जैसी फिल्मों में उन्होंने काम किया, लेकिन असली पहचान उन्हें पंचायत वेब सीरीज़ से मिली।
पंचायत में निभाया गया ‘बिनोद’ का किरदार उनके करियर का टर्निंग पॉइंट साबित हुआ, जिसने उन्हें वह लोकप्रियता दिलाई जिसकी उन्हें लंबे समय से तलाश थी।
अशोक पाठक राधिका आप्टे के साथ फिल्म सिस्टर मिडनाइट में भी नजर आए, जो कान फिल्म फेस्टिवल में प्रीमियर हुई।
वे बताते हैं कि पंचायत से उन्हें इतनी लोकप्रियता की उम्मीद नहीं थी। लेकिन जब उनका डायलॉग “देख रहा है बिनोद” सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, तो उन्हें लगा कि अब चीजें बदल रही हैं।
अशोक भावुक होकर कहते हैं, “जब दर्शकों से इतना प्यार मिला तो मैं रो पड़ा था।”
हालांकि, वे इस सफर में एक विरोधाभास की ओर भी इशारा करते हैं। उनका कहना है कि जब पंचायत रिलीज़ हुई, तो कई लोगों ने उन्हें कॉल और मैसेज कर मदद की पेशकश की, यह सोचकर कि वह कोई असली गांव का ज़रूरतमंद व्यक्ति हैं, कलाकार नहीं।
वे कहते हैं, “एक ओर खुशी थी कि मेरी एक्टिंग इतनी नेचुरल लगी कि लोगों ने मुझे असली समझ लिया, लेकिन दूसरी ओर यही सोचता था कि शायद इसी वजह से अब तक लोग मुझे नोटिस नहीं कर पाए थे।”

बिनोद से आगे क्या?
अशोक पाठक कहते हैं कि उन्हें पंचायत सिरीज़ के बाद लगातार बिनोद से मिलते-जुलते रोल ऑफ़र होने लगे हैं.
वह कहते हैं, “मैं जहां भी जाता हूं लोग सिर्फ़ बिनोद की चर्चा करना चाहते हैं, मुझे बहुत अच्छा लगता है कि बिनोद को लोगों का इतना प्यार मिला, मैं इसके लिए शुक्रगुज़ार हूं. लेकिन मैं चाहता हूं कि मेरे दूसरे किरदार को भी लोग पसंद करें, उसके बारे में बातें करें. ऐसा हो भी रहा है धीरे-धीरे, जैसे त्रिभुवन मिश्रा: सीए टॉपर में मेरा किरदार हो या फ़िल्म सिस्टर मिडनाइट में.”
Nice Article